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भारत भूमि पर पृथु से लेकर हरिश्चंद्र, मान्धाता और रघु से लेकर धर्मराज कृष्ण और युधिष्ठिर तक जितने राजा
हुये उनकी संख्या सूची बनाना जितना कठिन है,उनमें "सबसे श्रेष्ठ कौन हैं" इसका उत्तर उतना ही आसान है।

सबने एक स्वर में यही कहा है कि भारत-भूमि पर जन्में समस्त राजाओं में सबसे श्रेष्ठ "श्रीराम" थे।

शुक्र-नीति में कहा गया है:-  "न राम सदृशो राजा भूमौ नीति मानभूत"

शुक्र-नीति में जो कहा गया है उसका दर्शन पूरे रामायण में कई बार होता है।

वहां राम कई जगहों पर राजा के रूप में भी प्रस्तुत हैं और कई जगहों पर औरों को राज-काज की शिक्षा देते
हुये भी प्रस्तुत हैं।

राम जब राजा बने तो "उन्होंने राजा और आदर्श राज्य कैसा हो"  इसका आदर्श प्रस्तुत किया जिसे तुलसी
बाबा ने लिखा है:-   "दैहिक दैविक भौतिक तापा। रामराज नहीं कहहूँ व्यापा।।" 

और जब वो राजा नहीं थे तब भी उन्होंनें इसी राज्य-मर्यादा की शिक्षा अपने अनुजों और मित्रों को दी थी।

भरत चित्रकूट में जब राम से मिलने जाते हैं तो तत्कालीन अयोध्या नरेश भरत को राम राज-काल की जो शिक्षा
देतें हैं वो आज के शासकों के लिये भी पाथेय है। 

राम भरत से पूछ्तें हैं:-
भरत !
 
● तुम असमय में ही निद्रा के वशीभूत तो नहीं होते?

समय पर जाग तो जाते हो न? 

● सैनिकों को देने के लिये नियत किया हुआ समुचित वेतन और भत्ता तुम समय पर तो देते हो न?

इसे देने में कोई विलंब तो नहीं करते ? क्योंकि अगर सैनिकों को नियत समय पर वेतन,भत्ता न दिया जाये तो वो अपने स्वामी पर अत्यंत कुपित हो जातें हैं और इसके कारण बड़ा भारी अनर्थ हो जाता है।

● क्या तुम नीतिशास्त्र की आज्ञा के अनुसार चार या तीन मंत्रियों के साथ-सबको एकत्र करके अथवा सबसे अलग-अलग मिलकर सलाह करते हो?

● तुम राजकार्यों के विषय पर अकेले ही तो विचार नहीं करते?

● क्या तुम्हारी आय अधिक और व्यय बहुत कम है न ?

तुम्हारे कोष का धन अपात्रों के हाथ में तो नहीं चला जाता ?

● काम-काज में लगे हुये सारे मनुष्य तुम्हारे पास निडर होकर तो आतें हैं न ? 

● जंगल तुम्हारे राज्य में सुरक्षित तो हैं न ?

● तुम्हारे राज्य में दूध देने वाली गौएँ तो अधिक संख्या में है न ?

● क्या तुम्हारे राज्य में स्त्रियाँ भलीभांति सुरक्षित तो रहतीं हैं न?

● कृषि और गोरक्षा से आजीविका चलानेवाले सभी वैश्य तुम्हारे प्रीति पात्र तो हैं न ?

● तुम्हारे राज्य में सिंचाई व्यवस्था तो उत्तम है न ?

● तुम नास्तिक ब्राह्मणों का तो संग नहीं करते ?

क्योंकि वो अज्ञानी होते हुये भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी मानतें हैं। 

● तुमने जिसे राजदूत के पद पर नियुक्त किया है,वह पुरुष अपने ही देश का निवासी,विद्वान,कुशल
और प्रतिभाशाली तो है न ?

उसे जैसा निर्देश दिया गया हो वैसा ही वो दूसरे (राष्ट्राध्यक्ष) के सामने कहता है न ?

● क्या तुम्हारे सारे अधिकारी और मंत्रीमंडल के लोग तुमसे प्रीति रखतें हैं ?

क्या वो तुम्हारे लिए एकचित्त होकर अपने प्राणों का उत्सर्ग करने के लिये तैयार रहतें हैं ?

● क्या तुम अपने सेनानायकों को यथोचित सम्मान देते हो ?

● वो लोग जो राजा के राज्य को
हड़प लेने की इच्छा रखतें हो वैसे
दुष्टों को अगर राजा नहीं मार डालता,
वह स्वयम उसके हाथ से मारा जाता है।

● भरत !
जैसे पवित्र याजक पतित यजमान का तथा स्त्रियाँ कामचोर पुरुष का तिरस्कार कर देतीं हैं,उसी प्रकार प्रजा कठोरता पूर्वक अधिक कर लेने के कारण तुम्हारा अनादर तो नहीं करती।

● क्या तुमने अपने ही समान सुयोग्य व्यक्तियों को ही मंत्री बनाया है ? 

● क्या तुम अर्थशास्त्री सुधन्वा का सम्मान करते हो ?


राम ने राजनीति संबंधी ये उपदेश सुग्रीव से लेकर लक्ष्मण तक सबको दिये थे।

प्रभु कहतें हैं:-

● सामनीति के द्वारा न तो इस लोक
में ही कीर्ति प्राप्त ही जा सकती है और
न ही संग्राम में विजय हासिल होता है।

● यदि राजा दंड देने में प्रमाद कर जाये
तो उन्हें दूसरे के किये हुए पाप भी भोगने
पड़ते हैं।

● राजा को अपने सु-हृदयों की
पहचान अवश्य होनी चहिये।

● सेवकों को कम वेतन देने
वाला राजा नष्ट हो जाता है।

● जो राजा बड़ा अभिमानी हो,
स्वयं को ही सर्वोपरि माने ऐसे राजा
को संकटकाल में उसके अपने लोग
ही मार डालते हैं इसलिये राजा को
इन दुर्गुणों से बचना चाहिये। 

● जो राजा अपने उपकारी मित्रों के
सामने की गई अपनी प्रतिज्ञा(वादा/
घोषणा) को झूठी कर देता है,
उससे बढ़कर कोई क्रूर नहीं होता। 
ऊपर प्रभु के जितने भी उपदेश हैं क्या
उनमें से किसी एक के बारे में भी कोई
कह सकता है कि अब वो प्रासंगिक नहीं
रहा जबकि राजनीति विषयके ये उपदेश
भगवान ने लाखों साल पहले दिये थे।
रामलला के राजनीति-विषयक
उपदेशों का ये सार-संक्षेपण मात्र है।
आज के समय में जो प्रासंगिक है उसी
को आधार बनाकर और राम के उपदेशों
से कुछ का चयन कर मैंने सामने रखा है।
हमारी वर्तमान पीढ़ी इस बात को समझे
कि राम भारत के लिये क्या हैं,बस इसी
हेतु ये पोस्ट है। 

रामराज्य का वर्णन करते
हुए तुलसी कहतें हैं,

दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥

यानि,'रामराज्य' में दैहिक,दैविक और
भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते।
सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और
वेदों में बताई हुई नीति(मर्यादा)में
तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का
पालन करते हैं।

ऐसा नहीं है कि रामराज्य में हर कोई
धनपति हो गया था पर इसके बाबजूद
जिस रामराज्य का वर्णन तुलसी ने किया
है वहां वर्ग-संघर्ष जैसी कोई अवधारणा
नहीं पनप सकती थी इसकी वजह थी
कि वहां के मनुष्यों के बीच परस्पर प्रेम
था,एक-दूसरे के प्रति आदर का भाव था,
मालिक और मजदूर में भेद नहीं था,हर
कार्य की सफलता का श्रेय स्वयं को नहीं
सबको देने का भाव था।

संघ के द्वितीय सरसंघचालक
पू० माधव सदाशिव गोलवलकर
ने भी कहा था कि रिक्शे या ठेले
वाले को 'ऐ रिक्शावाले' कहने की
जगह अगर समाज उसे उसका
नाम लेकर बुलायें तो उसमें कभी
कम्युनिज्म और वर्ग-संघर्ष का भाव
नहीं पनप सकता।

ये सत्य कथन है कि प्रेम,आदर और
मानवीय मूल्यों का सम्मान आर्थिक
विषमता को गौण कर देता है,आर्थिक
विषमता सामजिक विषमता नहीं बन
पाती।

कोई मजदूर है,श्रम करता है तो
उसके मन में इसके लिये कोई
हीनताबोध ना हो,
श्रम सम्माननीय है,
गौरव-बोध कराती है।

रामकथा का एक बड़ा सन्देश ये भी है
और राम ने इसे जीवन और अपने कर्मों
से हमेशा सिद्ध किया। 

राजकुल में जन्मे अवश्य पर इसे उन्होंने
कभी भी श्रम से भागने का आधार नहीं
बनाया।
जब गुरुओं के साथ थे तो आश्रम की
तमाम व्यवस्थाओं के साथ अपने गुरु
के चरण दबाने जैसे कार्यों में राम हमेशा
आगे रहे,जब वनवास काल में थे तब
कुटिया बनाने से लेकर अन्य दूसरे काम
दोनों भाई स्वयं ही करते थे और जब
वापस अयोध्या आये,राजसिंहासन मिला
तब भी ये संस्कार न तो उनमें लुप्त हुआ
था न उनके परिवारजनों में। 

तुलसी आदर्श रामराज्य
के वर्णन में लिखतें हैं :- 

जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी।
बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी॥
निज कर गृह परिचरजा करई।
रामचंद्र आयसु अनुसरई॥
जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ।
सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ॥
कौसल्यादि सासु गृह माहीं।
सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं॥

यानि,यद्यपि घर में बहुत से दास और
दासियाँ हैं और वे सभी सेवा की विधि
में कुशल हैं,तथापि श्री सीताजी घर की
सब सेवा अपने ही हाथों से करती हैं और
श्री रामचंद्रजी की आज्ञा का अनुसरण
करती हैं,कृपासागर श्री रामचंद्रजी जिस
प्रकार से सुख मानते हैं,श्री सीता वही
करती हैं,क्योंकि वे सेवा की विधि
जानने वाली हैं।

घर में कौसल्या आदि सभी सासुओं की
सीताजी सेवा करती हैं,उन्हें किसी बात
का अभिमान और मद नहीं है।

बिना श्रम अगर कुछ हासिल हो जाये
तो वो महत्त्वहीन हो जाता है और जो
श्रम के नतीजे में मिले उससे सुखकर
कुछ नहीं होता,राम के जीवन-चरित
में इसे सिखाता हुआ एक प्रसंग है:- 

जब दशरथ ने प्रभु को वनवास की
आज्ञा दी तो वो एक-एक कर सबसे
मिले फिर जितनी धन-संपत्ति और
वस्त्राभूषण उनके पास थे सब दान
करने के लिए महल से बाहर निकल
आये।
दान करते समय एक अस्सी वर्षीय
वृद्ध लाठी टेकता हुआ उनके पास
याचक रूप में आया।

राम ने पूछा,क्या चाहिए ?
उस वृद्ध ने गौ की मांग की,
राम ने सामने मैदान की तरह
अंगुली से इशारा करते हुए उस
वृद्ध से कहा,बाबा आपके हाथ
में जो लाठी है,उसे जितनी जोर
से फेंक सकते हो फेंको।
जहाँ जाकर लाठी गिरेगी,उससे
इधर की सारी गौएँ आपकी।

उस बूढ़े को समझ नहीं आया कि ये
क्या कह रहे हैं राम,वो नकारात्मकता
में सर हिलाते हुए कहने लगा,राम,मेरी
उम्र इतनी नहीं है कि मुझसे ये लाठी
फेंकी जायेगी।
राम ने उसे उत्साहित करते हुए कहा,
देखो बाबा ! लाठी जितनी दूर फेंकोगे
उतनी गौएँ आपकी।

उत्साह में भरे बूढ़े ने पूरे ताकत से
लाठी घुमाकर फेंकी और वहां से
काफी दूर जा गिरी।

राम ने लाठी की सीमा के भीतर की
सारी गायें उसे देकर ससम्मान विदा
कर दिया। 

ये सारी घटना लक्ष्मण भी देख रहे थे,
उन्हें कुछ समझ नही आया तो उन्होंने
राम से पूछा :-
भैया,आप उसे यूं भी तो गौएँ दे सकते
थे तो उससे ये श्रम क्यों करवाया ?

तब राम ने लक्ष्मण को समझाते हुए
कहा कि अगर उस बूढ़े को दान में
गौएँ मिलती तो वो उसे मुफ्त का
माल समझकर अकर्मण्य हो जाते
पर चूँकि अब उन्होंने इसे अपने श्रम
से पाया है तो वो इसकी महत्ता और
मूल्य समझेंगे।

जब लंका विजय हुई तो विजय के
उपलक्ष्य में प्रभु ने सब वानर-भालुओं
को बुलाया,उनसे प्रेम से बात की और
कहा,ये विजय मेरी नहीं है,न ही रावण
वध अकेले मेरे बल का परिणाम था
बल्कि ये विजय आप सबके बल से
प्राप्त हुआ है और आज तीनों लोक
आप सबका यशोगान गा रहा है।

अपने इन सहयोगियों के प्रति राम ने
तब भी आभार प्रकट करते हुए उन्हें
विजय का श्रेय दिया था जब वो चौदह
वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे,
अपने कुल गुरु वशिष्ठ से सबका परिचय
कराते हुए राम ने कहा था;

"गुरुवर ! ये सब मेरे वो मित्र हैं जिन्होनें
मेरे लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी,
ये सब मुझे भरत से भी अधिक प्रिय हैं" 

लंकाकाण्ड में आता है कि जब विभीषण
के राज्याभिषेक की बात हो रही थी तब
राम ने विभीषण के लंका चलने के
अनुरोध को ये कहते हुए ठुकरा दिया
था कि मैं पिता की आज्ञानुसार चौदह
वर्ष पूर्व नगर में नहीं जा सकता पर
आपके राज्याभिषेक के लिये मैं
"अपने समान" सब वानरों को
भेजता हूँ।

राम ने वानरों को अपने समान बताया। 

राम की दृष्टि में हनुमान भी कोई
सेवक नहीं थे,राम ने कई बार हनुमान
को अपना पुत्र बताया है।

वो हनुमान से कहतें हैं,
"सुन सुत तोहि उरिन मैं नाहीं"
यानि हे पुत्र ! सुन मैं तुझसे उरिन
नहीं हो सकता।

इसलिये राम से अधिक समाजवादी,
मजदूर-हितैषी और वर्ग-भेद को पाटने
वाला कोई दुनिया के किसी किताब,
किसी वृत से,किसी इतिहास ग्रन्थ से
निकाल कर दिखा दे।

मालिक और मजदूर के संबंधों
को समझना हो,श्रम के सम्मान
को समझना हो,श्रम से आत्मगौरव
का बोध जागरण करना हो,मजदूर
यानि धर्मविरोध नहीं बल्कि धर्म के
अनुपालन का भाव देखना हो,
वर्ग-संघर्ष न जन्म ले इसके लिये
भाषण और दर्शन देने की जगह
स्वयं के जीवन को उदाहरण
बनाकर दिखाना हो तो रामचरित
से सुंदर कुछ नहीं हो सकता।

देश के विकास और निर्माण में बहुमूल्य भूमिका निभाने वाले लाखों मजदूरों के कठिन परिश्रम,दृढ़ निश्चय और निष्ठा का वास्तविक सम्मान तभी होगा जब हिंसा, वर्ग-संघर्ष,साम्राज्यवाद और नास्तिकता से मुक्त समाज बनेगा और ये व्यवहार में श्रीराम के अनुगमन के बिना संभव ही नहीं है।

माओवाद और मार्क्सवाद की आवश्यकता भ्रष्ट जार वाले रूस या महा-भ्रष्ट च्यांग काई शेक के चीन में रही होगी या है ... अपने भारत में इनका स्थान केवल डस्टबिन में है।

अपने मामा के यहाँ से आने के बाद जब भरत को राम के वनवास की खबर मिलती है तो वो माता कौशल्या से मिलने जातें हैं।

कौशल्या उनसे कहतीं हैं, "बेटा ! तुम राज्य चाहते थे न ? सो यह निष्कंटक राज्य तुम्हें प्राप्त हो गया"।

यह सुनकर भरत को बड़ी पीड़ा हुई और वो खुद को अपराधी मानते हुये माँ कौशल्या के चरणों में गिर पड़े और माँ कौशल्या से कई बातें कहीं जिसमें भरत कहतें हैं:-

"अगर मेरी सम्मति से भैया श्रीराम ने वन को प्रस्थान किया है तो मैं आज ही सत्पुरुषों के लोक से,सत्पुरुषों की कीर्ति से और सत्पुरुषों द्वारा सेवित कर्म से शीघ्र ही नष्ट हो जाऊं"।

इसके बाद भरत कहतें हैं:-

"अगर मेरी सम्मति से भैया श्रीराम ने वन को प्रस्थान किया है तो मुझे भी वही पाप लगे जो सेवक से भारी काम
करवाकर उसे समुचित वेतन न देने वाले स्वामी को लगता है।"

राम को वन भेजने के अपराध की सजा की तुलना भरत ने किससे की है अगर ये हमारे यहाँ के वामपंथी देख लेते तो मजदूरों की फ़िक्र में किसी मार्क्स और लेनिन की वाहियात किताबों की ओर देखने न जाते।

हिन्दुओं से अधिक समाजवादी कौन है दुनिया में ?

हमें अपने मजदूरों और वंचितों के लिये किसी आयातित विचार की आवश्यकता नहीं है क्योंकि दुनिया में हिन्दू धर्म से अधिक समाजवाद किसी भी धर्म में नहीं है, किसी विचार में नहीं है और दुनिया में कोई भी व्यक्तित्व नहीं है जो हमारे पूर्वजों से अधिक समाजवादी हो। 

विभिन्न स्रोतों से #संपादित  ✍🏻

सकल सुमंगल दायक
रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव 
सिंधु बिना जल जान।।

जय श्रीराम 🙏🏾

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